Tuesday, March 1, 2011

वो पहली मुहब्बत के दिन

वे बारिश के खुशनुमा दिन थे। वह अपनी नई-नई स्कूटी से कॉलेज आती थी। अहिस्ता-अहिस्ता वो स्कूटी चलाती थी। इस दौरान वो दाएं-बाएं कभी नहीं देखती थी। और उसका चेहरा उफ....!!!  बस खुशी से दमकता था। बिल्कुल बच्चों की तरह मासूम। जैसे कि वो स्कूटी नहीं प्लेन चला रही हो! और मैं वहां खड़ा-खड़ा उसका इंतजार करता रहता था। मैं एक बार पहले कॉलेज जाकर तसल्ली कर लेता की कहीं आज वो पहले तो कॉलेज नहीं आ गई। जब वो नहीं आती तो एक पल के लिए दिल को सुकून मिलता। फिर मेरी उदास आंखें उसे तलाशती रहती। और मैं वहीं पर उसका इंतजार करता रहता। उसके आने तक मैं कॉलेज के गेट से कॉलेज तक दो-तीन चक्कर लगा चुका होता था। जब वो आती दिख जाती तो मैं कॉलेज के अंतिम छोर पर खड़ा हो जाता। मैं वहां होकर भी अपना न होना जताता रहता। जैसे कि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, वो आए या नहीं।
    वे हमारे शीतयुद्ध के दिन थे। कभी-कभी ऐसा होता कि वह भी खड़ी रहकर वहां देखती कि मैं वहां हूं या नहीं। कुछ क्षण वो ठिठकी रहती। मैं एक पल के लिए उससे मुंह फेर लेता और वो एक ही झटके में मेरे पास से गुजर जाती। जैसे कि अभी बीते क्षण वह यहां थी ही नहीं, केवल मेरा भ्रम था। किन्तु वह होती, अपने-आप में पूर्ण, मुकम्मल। और मैं वहाँ से उठकर अपनी क्लास में चला जाता। किन्तु वह केवल दिखावा होता। बाहरी आडम्बर। अपना रुठा हुआ जताने की खातिर, किया हुआ प्रयत्न। उस एक बच्चे की तरह, जिसे जब तक न मनाओ, वह रुठा ही रहता है। यदि आप अपना ध्यान उससे हटा लेते हैं, तो वह ऐसी हरकतें करने लगता है कि आपका ध्यान उस पर जाए। वह कई-कई घंटे मोबाइल से चिपकी रहती। किसी से बात न करते हुए भी बात करती रहती। प्यास न लगने पर भी घूँट-घूँट पानी पीती। और मैं....मेरी तो बात ही छोड़ो। मैं हंसता रहता था। बेवजह। ताकि किसी को मेरी आंखों के आंसू ना दिख जाए। कोई मुझसे पूछ ना ले आज तुम्हे क्या हो गया। मैं उसकी तरफ एक नजर देख भी लेता तो वो झूठ-मूठ ही अपनी निगाहें किताबों में ऐसे गढ़ा लेती। जैसे कि उसको यह एहसास ही नहीं है कि मैं भी क्लास में हूं।
    जब शीत युद्ध के दिन लम्बे हो जाते। तब मैं ऊबने लगता। उससे मिलने के लिए, बात करने के लिए तड़पने लगता। भीतर ही भीतर अपने पर फट पड़ता। दिल रोने को करता और अपने किए को कोसता। ऐसे ही खयालों में, मैं जब सो जाता तो वह बिना कोई आहट किए, अपने घर की देहरी को लांघकर, कब मेरे सिरहाने आकर खड़ी हो जाती और मेरे बालों में हाथ फिराने लगती, पता ही नहीं चलता। उस क्षण यह भ्रम होता कि वह ना जाने कैसे मेरी हालत जान जाती है। कहीं उसके पास ऐसा कोई यन्त्र तो नहीं है। जिसे उसने मेरी परिधि के चारों और लगा रखा हो। जो मेरी पीड़ा, मेरी तड़प को भाँप लेता हो, कि अब कम है, अब ज्यादा। जब वह गुलाबी सूट पहने कनखियों से मुझे निहारती तो अगले ही क्षण हम एक-दूसरे के गले से लिपटे हुए होते। लगता ही नहीं, कि अभी हमने महीनेभर से दूरियों को ओढ़े हुए अपनी-अपनी दुनिया बना ली है। जहां एक-दूसरे का एहसास तो है मगर साथ नहीं है। अगले ही क्षण अलार्म बजता और मैं करवट बदल लेता। और दिन की शुरुआत होती फिर से बीती यादों के साथ। मैं अपनी कल्पना में उसके चेहरे पर हाथ फिराकर अपने चेहरे पर मल लेता। मैं देखना चाहता था कि मेरा चेहरा उसके खुशनुमा एहसास के साथ कैसा दिखता है।

वो पहली मुहब्बत के दिन थे...।