Tuesday, July 30, 2013

कभी समेटेगा वो मुझे पागलों की तरह...।

30 जुलाई। मेरी जिन्दगी का सबसे खास या फिर अहम दिन। मेरे लिए यही फ्रेंडशिप डे होता है। तुमने भी इस खास दिन अहमियत समझी है। इस बात की खुशी है मुझे। यूं तो अब तुमसे बात करने की कोई खास इच्छा या वजह बची नहीं है मुझमें, पर फिर भी इस अहम मौके पर तुमसे बात करने......तुम्हारी आवाज सुनने की तलब हुई थी। पर मेरे कहने के बावजूद आज तुमने मुझसे बात नहीं की। मेरे कहने के बावजूद.... तुमने बात, नहीं की। हालांकि यह जरूरी नहीं कि जैसा मैं चाहूं, वो तुम भी चाहो। मैं मानता हूं कि केवल मेरे चाहने भर से मैं तुमसे बात नहीं कर सकता। इसके लिए तुम्हारी इच्छा का होना भी जरूरी है। यह दिन मेरे लिए स्पेशल है, तुम्हारे लिए नहीं। इसलिए मैं तुम्हारे बात करने या नहीं करने को लेकर इतना अफसोस महसूस नहीं कर रहा हूं। पर यह सच है कि यह दिन साल में बस एक बार आता है, जिसकी हर बात मेरी यादों के खजाने को भरती जाती है। देखते-देखते पांच बरस बीत गए उन बातों को। कॉलेज की वो अलसाई सी दोपहर। तुम्हारे इंतजार में अक्सर मैं पहले ही पहुंच जाता था वहां। उन दिनों तुम्हारे पास एक ब्लेक रंग का मोबाइल था। मैं अक्सर यह देखने की कोशिश में रहता कि तुमने अपने मोबाइल में मेरे नम्बर किस नाम से सेव कर रखे हैं। यह अलग बात है कि मेरी यह कोशिश कभी कामयाब नहीं हुई। पता नहीं कौनसी दुनिया थी वो मेरी-तुम्हारी। जो कभी 'हमारी' नहीं हुई।
खैर.. वो बीती यादें अब बस एक सुनहरा अध्याय बनकर रह गई है मेरे लिए। पर फिर भी हर 30 जुलाई की तरह आज जब कॉलेज गया तो गेट पर सिटी बस को देखकर ठिठक सा गया मैं। ऐसा लगा कि तुम उसमें जाओगी। पर अब तुम उसमें नहीं जाती। अंदर प्रवेश किया तो लगा कि तुम बस मेरे आगे-आगे ईयरफोन लगाकर जोर-जोर से मोबाइल पर बात करते हुए जा रही हो। अक्सर ऐसा ही तो होता था। क्लासरूम के पास गया तो लगा कि तुम अंदर बैठी हो। बस मेरे जस्ट आगे की सीट पर। या यूं कहूं कि मैं जस्ट तुम्हारे पीछे की सीट पर। और फिर झगड़ा शुरू हो गया। यह भी तो एक वजह होती थी उन दिनों नाराजगी की। उन आखिरी दिनों में जब तुम्हारे पास स्कूटी आ गई थीं तो तुम्हारे चेहरे पर अजीब से खुशी महसूस की थी मैंने। शुरुआत में कितना डरते-डरते तुम स्कूटी चलाती थी। हा...हा...। और पता है जब मैं नोटिस बोर्ड के पास खड़ा था तो वहीं पर एक लड़की एक लड़के से कुछ पूछ रही थी। दोनो काफी देर तक गुफ्तगु कर रहे थे। वो अपनी बातों में खोये थे और मैं कुछ ही कदम की दूरी पर खड़ा उनको निहार रहा था। पता नहीं क्यूं मेरे चेहरे पर एकदम से हल्की सी मुस्कुराहट आ गई। उनको इत्मीनान से बतियाते देखकर यूं लगा जैसे वो लड़का मैं हूं और वो लड़की तुम। जैसे कुछ भी नहीं बदला उस नोटिस बोर्ड के पास। आज भी। मैं इंतजार करता हूं। तुम आती हो। एक-दूसरे से मिलते हैं, पर बात नहीं करते। गुस्सा होते हैं, पर एक-दूसरे का खयाल रखते हैं। जैसे आज भी सब कुछ वैसा ही है उस नोटिस बोर्ड के पास। उस क्लास के पास। जैसे सब कुछ वैसा ही है। उन दिनों (या फिर आज भी) तुम्हारा किसी और से बात करना सहन नहीं होता था मुझसे। पता नहीं क्या हो जाता था मुझे। मेरे लिए तुम्हारी दोस्ती सदा गर्व का विषय रही और तुम्हारे लिए मेरी दोस्ती शायद इसके बिल्कुल विपरीत वाला शब्द। यह बात मुझे शुरू से पता थी। पर मैंने इसे बदलने का संकल्प ले लिया था कि तुम्हारे लिए भी मेरी दोस्ती एक दिन गर्व का विषय बनेगी।

मैं टूटा हूं, जिसके हाथों से गिरकर।
मुझे यकीन है, कभी समेटेगा वो मुझे पागलों की तरह।।