अच्छा हुआ। तुम आ गईं। बस एक ही बात कहनी थी तुमसे कि तुम याद आती हो मुझे। अकेलेपन में..... जहां तुम्हारा अहसास मेरे साथ रहता था। दुनिया की भीड़ में..... जहां मैं तुम्हें दूर से पहचान लिया करता था। और उस सूनी सड़क पर... जहां अक्सर टहलते हुए मैं फोन पर तुमसे बतियाता रहता था। कॉलेज में... जहां अक्सर हम झगड़ा करते रहते थे। क्लास में.... जहां मेरा ध्यान तुमसे हटता ही नहीं था। रेलवे स्टेशन पर.. जहां ट्रेन को तुम्हें साथ ले जाते देखकर अपने अंदर कुछ टूटता हुआ सा महसूस किया था मैंने। और वो अनजाने शहर में चार मार्च का दिन.... जहां नाराजगी की सभी दीवारों को गिराते हुए करीब साल भर बाद हम बीती यादों में खो गए थे। तुम्हारे साथ ने वो दिन मेरे लिए अविस्मरणीय बना दिया था। उस दिन जब तुमने बिना किसी औपचारिकताओं के मुझे अपने दिल का हाल सुनाया था। तब कितनी अपनी सी लगी थी तुम मुझे। बताना मुश्किल है मेरे लिए। उस दिन विपरीत परिस्थितियों के चलते तुम्हें पहली बार इस तरह रोते हुए देखा था मैंने। बड़ी मुश्किल से खुद को रोने से रोका था मैंने। हां, पलकें गीली हो गई थीं। सच कहूं, तो उस वक्त... मैं भी तुम्हें गले लगाकर रोना चाहता था। और उस वक्त भी जब.... जब मैं तुम्हें हॉस्टल के पास छोडऩे के बाद विपरीत दिशा में जाने के लिए मुड़ गया था। फिर पलटकर वापस आया था तुम्हारे पास। बाय करने के लिए। तुमने शायद गौर नहीं किया, पर मैं तुम्हें गले लगाने के लिए ही पलटकर आया था। लेकिन नहीं कर पाया मैं ऐसा। वो दिन, तुम्हारे साथ... और वो रात, ट्रेन में तुम्हारी यादों के साथ ही काटी थी मैंने। दिन-रात के किसी भी पहर में ऐसा कोई पल था ही नहीं। जिसमें तुम मेरे साथ नहीं थी। सच कहूं तो तुम्हारे जाने के बाद इस शहर से और इस जगह से मुझे कोई मोह नहीं रहा। पर तुम्हारी यादों से गहरा लगाव मुझे यह जगह छोडऩे नहीं देते। मैं कभी-कभी उस अतीत में लौट जाना चाहता हूं। जहां मैं तुम्हारे सपने देखता था। और अक्सर आज भी मैं उस कॉलेज में.. उस क्लास में... नोटिस बोर्ड के पास.. तुम्हारी गली में... मेरे ऑफिस के बाहर सूनी सड़क पर....रेलवे स्टेशन पर.. जहां-तहां बिखरे तुम्हारी यादों के टुकड़ों को चुनता रहता हूं। इन दिनों मैं जहां हूं, वहां बेचैनियां हैं। इतनी की फुरसत के लम्हे भी काटते हैं मुझको। मैं हर बीत गए पल को कितना भी मुड़ कर देखूं, किन्तु तुमको वहां नहीं पाता। बस एक साया है तुम्हारा। तुम हजारों किलोमीटर दूर जहां रहती हो, वहां से कोई सुकून का एक टुकड़ा मुझे भेज दो। सुकून की करवटें जो तुम अपने साथ ले गईं थी। उनमें एक हिस्सा मेरा भी है। बिस्तर की सलवटों में जो कई दिन उलझे हैं। उनमें से एक दिन मेरे लिए भी भेज देना। बालकनी में कॉफी के मध्य ठहरी होगी तुम्हारी हंसी। उसका एक टुकड़ा भेज देना। और भेज देना, वो बेपरवाह रातों की किस्सागोई। वो अहसासों की गठरी...और वो तेरी बाहों की दुनिया। जो सदा मेरे लिए एक ख्वाब ही रही है। आज जब तुम मेरे साथ... मेरे सामने बैठी हो... तो क्या ये बांहों की दुनिया मेरी हो सकती है..? क्या मैं कुछ देर तुम्हें गले लगाकर रो सकता हूं...?
ना गरज किसी से..ना वास्ता किसी से... मुझे काम है, बस अपने ही काम से... तेरे जिक्र से.. तेरी फिक्र से.. तेरे नाम से.. तेरी याद से...
Sunday, November 17, 2013
...और वो तेरी बाहों की दुनिया
अच्छा हुआ। तुम आ गईं। बस एक ही बात कहनी थी तुमसे कि तुम याद आती हो मुझे। अकेलेपन में..... जहां तुम्हारा अहसास मेरे साथ रहता था। दुनिया की भीड़ में..... जहां मैं तुम्हें दूर से पहचान लिया करता था। और उस सूनी सड़क पर... जहां अक्सर टहलते हुए मैं फोन पर तुमसे बतियाता रहता था। कॉलेज में... जहां अक्सर हम झगड़ा करते रहते थे। क्लास में.... जहां मेरा ध्यान तुमसे हटता ही नहीं था। रेलवे स्टेशन पर.. जहां ट्रेन को तुम्हें साथ ले जाते देखकर अपने अंदर कुछ टूटता हुआ सा महसूस किया था मैंने। और वो अनजाने शहर में चार मार्च का दिन.... जहां नाराजगी की सभी दीवारों को गिराते हुए करीब साल भर बाद हम बीती यादों में खो गए थे। तुम्हारे साथ ने वो दिन मेरे लिए अविस्मरणीय बना दिया था। उस दिन जब तुमने बिना किसी औपचारिकताओं के मुझे अपने दिल का हाल सुनाया था। तब कितनी अपनी सी लगी थी तुम मुझे। बताना मुश्किल है मेरे लिए। उस दिन विपरीत परिस्थितियों के चलते तुम्हें पहली बार इस तरह रोते हुए देखा था मैंने। बड़ी मुश्किल से खुद को रोने से रोका था मैंने। हां, पलकें गीली हो गई थीं। सच कहूं, तो उस वक्त... मैं भी तुम्हें गले लगाकर रोना चाहता था। और उस वक्त भी जब.... जब मैं तुम्हें हॉस्टल के पास छोडऩे के बाद विपरीत दिशा में जाने के लिए मुड़ गया था। फिर पलटकर वापस आया था तुम्हारे पास। बाय करने के लिए। तुमने शायद गौर नहीं किया, पर मैं तुम्हें गले लगाने के लिए ही पलटकर आया था। लेकिन नहीं कर पाया मैं ऐसा। वो दिन, तुम्हारे साथ... और वो रात, ट्रेन में तुम्हारी यादों के साथ ही काटी थी मैंने। दिन-रात के किसी भी पहर में ऐसा कोई पल था ही नहीं। जिसमें तुम मेरे साथ नहीं थी। सच कहूं तो तुम्हारे जाने के बाद इस शहर से और इस जगह से मुझे कोई मोह नहीं रहा। पर तुम्हारी यादों से गहरा लगाव मुझे यह जगह छोडऩे नहीं देते। मैं कभी-कभी उस अतीत में लौट जाना चाहता हूं। जहां मैं तुम्हारे सपने देखता था। और अक्सर आज भी मैं उस कॉलेज में.. उस क्लास में... नोटिस बोर्ड के पास.. तुम्हारी गली में... मेरे ऑफिस के बाहर सूनी सड़क पर....रेलवे स्टेशन पर.. जहां-तहां बिखरे तुम्हारी यादों के टुकड़ों को चुनता रहता हूं। इन दिनों मैं जहां हूं, वहां बेचैनियां हैं। इतनी की फुरसत के लम्हे भी काटते हैं मुझको। मैं हर बीत गए पल को कितना भी मुड़ कर देखूं, किन्तु तुमको वहां नहीं पाता। बस एक साया है तुम्हारा। तुम हजारों किलोमीटर दूर जहां रहती हो, वहां से कोई सुकून का एक टुकड़ा मुझे भेज दो। सुकून की करवटें जो तुम अपने साथ ले गईं थी। उनमें एक हिस्सा मेरा भी है। बिस्तर की सलवटों में जो कई दिन उलझे हैं। उनमें से एक दिन मेरे लिए भी भेज देना। बालकनी में कॉफी के मध्य ठहरी होगी तुम्हारी हंसी। उसका एक टुकड़ा भेज देना। और भेज देना, वो बेपरवाह रातों की किस्सागोई। वो अहसासों की गठरी...और वो तेरी बाहों की दुनिया। जो सदा मेरे लिए एक ख्वाब ही रही है। आज जब तुम मेरे साथ... मेरे सामने बैठी हो... तो क्या ये बांहों की दुनिया मेरी हो सकती है..? क्या मैं कुछ देर तुम्हें गले लगाकर रो सकता हूं...?
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