'वो मुझसे खफा रहे, मंजूर है मुझे
पर उससे कहो, मेरा शहर ना छोड़े..' याद है मुझे। उस दिन जब तुम्हें साथ लेकर रेल प्लेटफोर्म को छोड़कर जा रही थी। तो उसके बाद मुझे उदासियों ने आ घेरा। और फिर हर पल लगने लगा कि तुम मुझसे दूर....बहुत दूर......चली जा रही हो। यूं लग रहा था जैसे बच्चे के हाथ से उसकी पसंदीदा वस्तु छीनी जा रही हो। मैं बच्चे की तरह ही जिद करके तुम्हें अपने पास अपनी बाहों में रखना चाहता था। ट्रेन के पीछे दौडऩा चाहता था। तुम्हें जोर से पुकारना चाहता था। पर ऐसा हो ना सका। एक अरसे बाद तुम मेरी यादों में.....मेरे शहर में आई थी। थोड़ा सा झगड़ा और ढेर सारी बातें करनी थी तुमसे । तुम्हारा पोट्रेट जो मैंने बनवाया था तुम्हारे लिए। उसके लिए फ्रेम भी लेकर आया था मैं। पर सारी ख्वाहिशों को अधूरा छोड़कर तुम चलीं गई थी। मुझसे बिना मिले। मुझसे बिना बात किए। और मैं बच्चे की तरह सहम सा गया था। तुम्हारे बगैर। किसी ने वापस बहलाया ही नहीं मुझे। हालांकि हम एक ही शहर में होते हुए भी रोज़ कहाँ मिल पाते थे। किन्तु फिर भी एक सुकून मिलता था कि चलो कोई तो अपना भी इस शहर में है। चेहरे पर हरदम रहने वाली मुस्कुराहट एकदम से उदासी में बदल गई थी। ना जाने यह कैसा सिलसिला है, जो थमता ही नहीं. शाम बीती और फिर रात भर दम साधे तुम्हारी आवाज़ की प्रतीक्षा करता रहा। छत पर खड़ा होकर तुम्हारे घर की तरफ देखता रहा। उन बेहद निजी पलों में कई खय़ाल आए और चले गए।
पर उससे कहो, मेरा शहर ना छोड़े..' याद है मुझे। उस दिन जब तुम्हें साथ लेकर रेल प्लेटफोर्म को छोड़कर जा रही थी। तो उसके बाद मुझे उदासियों ने आ घेरा। और फिर हर पल लगने लगा कि तुम मुझसे दूर....बहुत दूर......चली जा रही हो। यूं लग रहा था जैसे बच्चे के हाथ से उसकी पसंदीदा वस्तु छीनी जा रही हो। मैं बच्चे की तरह ही जिद करके तुम्हें अपने पास अपनी बाहों में रखना चाहता था। ट्रेन के पीछे दौडऩा चाहता था। तुम्हें जोर से पुकारना चाहता था। पर ऐसा हो ना सका। एक अरसे बाद तुम मेरी यादों में.....मेरे शहर में आई थी। थोड़ा सा झगड़ा और ढेर सारी बातें करनी थी तुमसे । तुम्हारा पोट्रेट जो मैंने बनवाया था तुम्हारे लिए। उसके लिए फ्रेम भी लेकर आया था मैं। पर सारी ख्वाहिशों को अधूरा छोड़कर तुम चलीं गई थी। मुझसे बिना मिले। मुझसे बिना बात किए। और मैं बच्चे की तरह सहम सा गया था। तुम्हारे बगैर। किसी ने वापस बहलाया ही नहीं मुझे। हालांकि हम एक ही शहर में होते हुए भी रोज़ कहाँ मिल पाते थे। किन्तु फिर भी एक सुकून मिलता था कि चलो कोई तो अपना भी इस शहर में है। चेहरे पर हरदम रहने वाली मुस्कुराहट एकदम से उदासी में बदल गई थी। ना जाने यह कैसा सिलसिला है, जो थमता ही नहीं. शाम बीती और फिर रात भर दम साधे तुम्हारी आवाज़ की प्रतीक्षा करता रहा। छत पर खड़ा होकर तुम्हारे घर की तरफ देखता रहा। उन बेहद निजी पलों में कई खय़ाल आए और चले गए।
सच में, तुम्हारी बहुत याद आई.
पलकें गीली हो गई थी। मैंने आंसू नहीं पौंछे। बस उनको बह जाने दिया। :( सुबह बेहद वीरान और उदासियों से भरी हुई सामने आ खड़ी हुई. मन किया कि कहीं भाग जाऊं, कहाँ ? स्वंय भी नहीं जानता। जिस एकांत में तुम्हारी खुशबू घुली हुई हो और मैं पीछे छूट गयी तुम्हारी परछाइयों से लिपट कर स्वंय को जिंदा रख सकूँ। उस किसी एकांत की चाहना दिल में घर करने लगी है। उस वक्त भी तुम्हारी बहुत याद आई। सच में तुम्हारी सादगी के भोलेपन पर अपनी जिंदगी लुटा देने को मन करता है। तुम्हारे साथ का हर लम्हा मुझे तुम्हारे पास होने का एहसास दिलाता है। मेरी उदासियों के साए में उन जगमगाते रौशन कतरों को शामिल कर दो। मैं भी तुम्हारे पीछे इन दिनों को जी सकूँ। नहीं तो सच में, तुम बिन मर जाने को जी चाहता है। तुम मेरे वजूद में इस कदर शामिल हो जैसे तुम्हारे बिना मैं कोई सूखी नदी हूँ।
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