Sunday, October 23, 2011

...जाने कहां होगी वो

कुछ आदतें कभी नहीं बदलती। जैसे कि नम आंखों के साथ रोजाना उसकी तस्वीर के सामने घण्टों तक बातें करना हो या रात को सोने से पहले डायरी में सहेजकर रखी उसकी यादों पर हाथ फिराना हो। कुछ भी नहीं बदला था मैं। हालांकि लफ्जों का वो पुल, जिसकी बुनियाद पर हमारा रिश्ता टिका था। आज टूट चुका था। मगर फिर भी उसके आखिरी शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। 'अपना खयाल रखना'। बस....इतना ही बोल पाई थी वो। उस उदास लम्हे में इससे ज्यादा बोलने की हिम्मत कहां बची थी उसमें। और मैं...समझ ही नहीं पाया था उसकी बेबसी को...। उसकी गीली हुई पलकों की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया। मैं तो बस अपनी ही धुन में उसको अपनी कहानी सुनाए जा रहा था। मैं अब यहां से जा रहा हूं। वहां ये करूंगा, वो करूंगा। बहुत सारे सपने देखे हैं मैंने, जो मुझे सच करने हैं। और भी न जाने क्या-क्या। वो चाहकर भी मुझे अपने मन की बात नहीं कह पाई थी। जाते वक्त मैंने तो हाथ भी नहीं मिलाया था उससे। बस यूं ही चला आया था। कुछ दिन बाद उसे फोन किया, तो न जाने क्यूं उसकी बेरूखी पर मुझे गुस्सा आ गया। फिर मैंने कभी फोन नहीं किया।
मगर भगवान को शायद कुछ और मंजूर था। जिन्दगी के इस मोड़ पर हमारा रिश्ता फिर नई करवट लेगा। मैंने सोचा नहीं था। भागदौड़ की जिन्दगी में उसका साथ भले ही मुझसे छूट गया था। पर दिल के किसी कोने में उसकी यादें आज भी अपनी गर्माहट से मुझे ऊर्जा दे रही थी। एक दिन न जाने क्यूं मैंने उसको फोन कर दिया। तकरीबन दो साल बाद। आवाज में वही आत्मीयता। जो मैंने दो साल पहले उससे जुदा होते हुए महसूस की थी। बातों का सिलसिला एक बार शुरू हुआ तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। गिले-शिकवे तो यूं दूर हुए, जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं हो। न जाने कब दिन ढल गया और कब रात हो गई। मगर बातें खत्म नहीं हुई। कल फिर बात करने के वादे के साथ गुफ्तगु को विराम दिया गया। देर रात तक मैं उसकी यादों में उलझा रहा। सुबह नींद खुली उसके एसएमएस के साथ। बरसों बाद उसका मैसेज आया था। पता नहीं क्यूं, उस मैसेज को दो-तीन बार पढऩे पर भी जी नहीं भरा। मैं जितनी बार भी उसका मैसेज पढ़ता। मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट की साइज और ज्यादा बढ़ जाती। इतने में उसका फोन आ ही गया।
 'कल मैं बहुत खुश थी'। यह कहते हुए उसकी खुशी साफ झलक रही थी। मैंने कहा-'पता नहीं कल मुझे क्या हो गया था। मैं अपनी हंसी को रोक नहीं पा रहा था। शायद अरसे बाद इतनी निश्छल खुशी को महसूस किया था मैंने'।
- अच्छा, तुम्हें याद है दिल्ली का वो कॉलेज टूर ?
- मैं कहा- हां, बिल्कुल याद है। शायद 21-22 दिसम्बर को गए थे।
- वो खुश होकर बोली, वाऊ....। तुम्हें तो डेट भी याद है तो फिर और भी बहुत कुछ याद होगा।
- मैं उसी अंदाज में कहता गया। हां....मैं डायरी लिखता हूं ना।  इसलिए मुझे सब याद है। हम कई जगह घूमे थे। साथ खाना खाया था। वगैरह-वगैरह।
- अच्छा। चलो ये बताओ। उस दौरान और क्या स्पेशल हुआ था ?
- हम्म.....स्पेशल क्या हुआ ? मुझे तो कुछ याद नहीं।
- तुम अपनी डायरी पढऩा। शायद उसमें कुछ लिखा हो।
उस दिन मैंने खूब डायरी के पन्ने पलटे। पर ऐसा कोई संस्मरण मुझे याद नहीं आया। फिर मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उससे पूछा कि ऐसा क्या स्पेशल हुआ जो न मेरी डायरी में है और न ही मेरी यादों में। वो मुस्कुरा दी। :)  उसने कहा- चलो मैं ही बता देती हूं। हमारा पूरा ग्रुप दरगाह गया था। मगर हम दोनों उन सबसे अलग चल रहे थे। सब लोग आगे चले गए और हम दोनों पीछे रह गए थे। मैं पहली बार दरगाह गई थी। और इससे पहले मेरे मन में...कहीं किसी कोने में यह खयाल दबा था कि मैं उस शख्स के साथ दरगाह जाना पसंद करूंगी, जिसे मैं चाहती हूं। जब आप मेरे साथ चल रहे थे। तब मेरे दिल और दिमाग में बस वही खयाल घूम रहा था। और आप मुझे दरगाह में जियारत के तौर-तरीके बताते जा रहे थे। उस दिन भीड़ भी बहुत ज्यादा थी। सब लोग काफी आगे चले गए थे। पीछे रह गए थे केवल तुम और मैं। इनके अलावा एक और चीज थी, जो हमारे साथ थी। मेरा वही खयाल। पता नहीं क्यूं, मैं चाहकर भी उस खयाल को अपने से दूर नहीं कर पा रही थी। दरगाह के अंदर जाने से पहले तुम मेरे बिल्कुल नजदीक आ गए थे। और तुमने कहा- अरे, रुको, तुम ऐसे कैसे अंदर जा रही हो। इतने में ही तुमने अपने हाथ से मेरे दुपट्टे को खोलकर मेरे सर पर लगा दिया था। मुझसे बिना कुछ कहे। उस वक्त न जाने क्यूं मुझे बेहद कोमल सा एहसास हुआ था। तुम मुझे अपने करीब महसूस हुए थे। बेहद करीब। जहां मैं तुमको महसूस कर सकती थी। वो पल आज भी मेरी स्मृतियों में जिंदा है। जब अंदर जाने लगे तो मुझे भीड़ से बचाने के लिए तुमने मेरा हाथ थाम लिया था। बेहद अपनापन सा महसूस किया था मैंने। तुमने मुझे अपने साथ..., बिल्कुल पास में लेकर दरगाह की जियारत कराई थी। उस वक्त मैं दरगाह में थी, लेकिन मेरा मन तो कहीं और था। शायद तुम ये बातें नहीं समझ सकते। लेकिन मैं...मेरे लिए तो वो सबसे खुशनुमा पल था। मैं समझ ही नहीं पाई ये मुझे क्या हो रहा है। शायद, वो सब कुछ बिल्कुल सामान्य तरीके से हो रहा था। मगर मेरा मन अभी उस खयाल के आस-पास ही घूम रहा था। खुदा की बारगाह में दुआ मांगते वक्त भी तुम मेरे खयालों से जुदा नहीं हुए थे। आज भी वो पल मुझे याद आता है।'
यह सब कुछ उसने एक सांस में कह दिया था। और उसकी बातें सुनने के बाद मैं समझ नहीं पा रहा था,कि अब क्या बोलूं। जिन्दगी में कभी किसी ने मुझसे जुड़ी कोई बात इस तरह से बयां नहीं की थी। आज उससे बात हुए एक बरस बीत गया। उसने नहीं चाहते हुए भी मुझसे दूरी बना ली। पता नहीं ऐसी क्या मजबूरी रही होगी उसकी। 'मैं तुम्हें बहुत मिस करूंगी। मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा, तुमसे बात किए बिना रहना। पर, प्लीज तुम मुझे कभी फोन मत करना....कभी नहीं....कभी भी नहीं।' और मैंने भी उसको वादा कर दिया कि- 'हां, मैं फोन नहीं करूंगा पर तुम्हें बहुत याद करूंगा। तुम जब चाहो मुझे फोन कर सकती हो।'

फिर एक साल बाद उसका मैसेज आया। 'ए वैरी-वैरी हैप्पी न्यू ईयर।' और मैं खुशी से झूम उठा। पर रिप्लाई नहीं कर पाया। कभी फोन-एसएमएस नहीं करने का वादा जो किया था। मैसेज के आखिर में अपना नाम भी नहीं लिखा था उसने। उसे शायद अब भी यकीन होगा कि उसके नम्बर मैंने डिलीट नहीं किए हैं। आज वो न जाने कहां होगी। मेरे पास तो उसका खयाल ही है।

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